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इन्द्रा॑य॒ सोमाः॑ प्र॒दिवो॒ विदा॑ना ऋ॒भुर्येभि॒र्वृष॑पर्वा॒ विहा॑याः। प्र॒य॒म्यमा॑ना॒न्प्रति॒ षू गृ॑भा॒येन्द्र॒ पिब॒ वृष॑धूतस्य॒ वृष्णः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrāya somāḥ pradivo vidānā ṛbhur yebhir vṛṣaparvā vihāyāḥ | prayamyamānān prati ṣū gṛbhāyendra piba vṛṣadhūtasya vṛṣṇaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रा॑य। सोमाः॑। प्र॒ऽदिवः॑। विदा॑नाः। ऋ॒भुः। येभिः॑। वृष॑ऽपर्वा। विऽहा॑याः। प्र॒ऽय॒म्यमा॑नान्। प्रति॑। सु। गृ॒भा॒य॒। इन्द्र॑। पिब॑। वृष॑ऽधूतस्य। वृष्णः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:36» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (वृषपर्वा) समर्थ पालनोंवाला (विहायाः) अनर्थों का नाशकारी (ऋभुः) बुद्धिमान् जन (येभिः) जिन लोगों से (प्रयम्यमानान्) अत्यन्त नियमयुक्तों को जानता है वैसे (इन्द्राय) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के लिये (सोमाः) उत्पन्न करनेवाले वा उत्पन्न किये गये पदार्थ (प्रदिवः) प्रकाशित विद्यायुक्त (विदानाः) प्राप्त हुए हों इनको आप लोग जानिये हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्य से युक्त पुरुष ! आप इन लोगों को (प्रति, सु, गृभाय) अच्छे प्रकार ग्रहण कीजिये और (वृषधूतस्य) सेचनों से मथे हुए (वृष्णः) बढ़ानेवाले रस का (पिब) पान कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! इस संसार में जैसे श्रेष्ठ यथार्थवक्ता पुरुष दुष्ट व्यवहार का त्याग और श्रेष्ठ आचरण का ग्रहण करके नियमित आहार विहार से रोगरहित और अधिक अवस्थावाले होते हैं, वैसे ही आप लोग भी हूजिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा वृषपर्वा विहाया ऋभुर्येभिः प्रयम्यमानान् जानाति तथेन्द्राय सोमाः प्रदिवो विदानाः सन्त्यैतान् यूयं विजानीत। हे इन्द्र त्वमेतान् प्रति सुगृभाय वृषधूतस्य वृष्णो रसं पिब ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (सोमाः) ये सुन्वन्ति सूयन्ते वा ते पदार्थाः (प्रदिवः) प्रकृष्टा द्यौः प्रकाशमाना विद्या येषान्ते (विदानाः) लभमानाः (ऋभुः) मेधावी। ऋभुरिति मेधाविना०। निघं० ३। १५। (येभिः) यैः (वृषपर्वा) वृषाणि समर्थानि पर्वाणि पालनानि यस्य सः (विहायाः) योऽनर्थान् विजहाति सः (प्रयम्यमानान्) प्रकर्षेण प्रापितनियमान् (प्रति) (सु) (गृभाय) गृहाण (इन्द्र) ऐश्वर्य्ययुक्त (पिब) (वृषधूतस्य) वृषैः सेचनैर्यो धूतो विलोडितस्तस्य (वृष्णः) वर्धकस्य ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या इह संसारे यथाऽऽप्ता दुष्टं व्यवहारं त्यक्त्वा श्रेष्ठमाचर्य्य युक्ताहारविहारेणारोगा दीर्घायुषो भवन्ति तथैव यूयमपि भवत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! या जगात जसे श्रेष्ठ पुरुष दुष्ट व्यवहाराचा त्याग व श्रेष्ठ आचरणाचे ग्रहण करून नियमित आहार-विहाराने रोगरहित व दीर्घायू होतात तसेच तुम्ही लोकही व्हा. ॥ २ ॥